'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा' ????
'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा' ????
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।" यह केवल एक गीत नहीं है, बल्कि करोड़ों भारतीयों की भावना है। हमारा देश अपनी समृद्ध संस्कृति, विविधता और महान इतिहास के लिए जाना जाता है। लेकिन, क्या हम सच में इस नारे को जी रहे हैं? क्या आज का भारत हर मायने में 'सारे जहाँ से अच्छा' है? या यह सिर्फ एक नारा बनकर रह गया है, जबकि कई गंभीर चुनौतियाँ हमारे सामने खड़ी हैं? यह सवाल आज हर उस नागरिक के मन में है जो अपने देश से प्यार करता है।
सामाजिक चुनौतियाँ: धर्म, जाति और असुरक्षा
आज भारत में धर्म और जाति की राजनीति चरम पर है। राजनैतिक दल सिर्फ वोट के लिए लोगों को बाँट रहे हैं।
यह बिल्कुल सच है। आज राजनीति में लोग हिंदू को मुसलमान से और मुसलमान को हिंदू से लड़वा रहे हैं। असल में, लोगों को धर्म के बारे में ठीक से पता नहीं होता; वे बस कठपुतलियों की तरह इन नेताओं के इशारों पर चलते हैं।
इसका मतलब है वह कर्तव्य या आचरण जो किसी व्यक्ति को समाज में सही और नैतिक जीवन जीने के लिए करना चाहिए। यह शब्द किसी विशेष धार्मिक आस्था या अनुष्ठान से कहीं ज़्यादा गहरा है।
धर्म का ऐतिहासिक संदर्भ
प्राचीन भारत में, धर्म का संबंध व्यक्ति के नैतिक कर्तव्य और सामाजिक भूमिका से था। उदाहरण के लिए, "राजधर्म" का अर्थ एक राजा के कर्तव्य थे, और "पुत्रधर्म" का अर्थ एक बेटे के कर्तव्य। धर्म का मूल उद्देश्य लोगों को प्रेम, करुणा, न्याय और सत्य के मार्ग पर चलाना था, न कि उन्हें अलग-अलग समूहों में बाँटना। यह व्यक्तिगत नैतिकता और सामाजिक व्यवस्था का आधार था।
वास्तव में धर्म क्या है?
वास्तविक धर्म लोगों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
यह सिखाता है कि दूसरों का सम्मान करें, चाहे उनका विश्वास कुछ भी हो।
यह मानवीय मूल्यों जैसे ईमानदारी, दया, और अहिंसा को बढ़ावा देता है।
यह हमें सही और गलत के बीच अंतर करना सिखाता है, ताकि हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकें।
नेताओं द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला धर्म सिर्फ एक राजनीतिक हथियार है, जबकि असली धर्म हमें नैतिकता और मानवता सिखाता है।
न्याय का इंतजार: अपराधियों को सजा कब?
महिलाओं की सुरक्षा आज भारत में एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गई है। आए दिन निर्भया और मनीषा जैसे जघन्य दुष्कर्म के नए मामले सामने आते हैं, जो समाज को झकझोर देते हैं। यह बेहद दुखद है कि इन मामलों में अपराधियों को अक्सर कड़ी सजा नहीं मिलती, जिससे पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता।
अपराधियों को सजा न मिलने के कई कारण हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:
लंबी न्यायिक प्रक्रिया: भारत में न्यायिक प्रक्रिया बहुत धीमी है। सालों तक केस चलते रहते हैं, जिससे पीड़ित और उनके परिवार को मानसिक तनाव से गुजरना पड़ता है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव: कुछ मामलों में, अपराधी समाज के प्रभावशाली लोग होते हैं या उनके राजनीतिक संबंध होते हैं। ऐसे में, वे कानून की पकड़ से बचने में कामयाब हो जाते हैं।
कमजोर कानून व्यवस्था: कानून का ठीक से पालन न होना और जांच में खामियां भी अपराधियों को फायदा पहुँचाती हैं
कानून का मजाक: राम रहीम जैसे दुष्कर्मी, जिन्हें कानून ने सजा दी है, वे भी बार-बार पैरोल पर जेल से बाहर आ जाते हैं। ऐसा लगता है कि उनके लिए जेल सजा भुगतने की जगह नहीं, बल्कि एक आरामदायक जगह है जहाँ से वे जब चाहें बाहर आ सकते हैं। यह कानूनी प्रणाली का मजाक और समाज के लिए एक अपमान है।
संविधान पर एक हमला
भारत में महापुरुषों, जैसे कि डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, का अपमान एक बहुत ही गंभीर और चिंताजनक मुद्दा है। यह हमारे संविधान और राष्ट्रीय मूल्यों पर सीधा हमला है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे अपमानजनक बयान कभी-कभी संसद जैसी पवित्र जगहों पर भी दिए जाते हैं, और इसके बावजूद कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।
पाखंडी बाबा और धार्मिक ग्रंथ
यह सच है कि कुछ तथाकथित 'धर्मगुरु' या पाखंडी बाबा अपने धार्मिक ग्रंथों को सही साबित करने के लिए महापुरुषों की विचारधारा को गलत ठहराने की कोशिश करते हैं। वे विचारों को गलत बताकर अपने अनुयायियों को भ्रमित करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि:
- अंधविश्वास और अज्ञानता: इन बाबाओं के अनुयायी अक्सर अंधविश्वासी होते हैं और उनमें शिक्षा की कमी होती है। वे बिना सवाल किए इन बातों पर विश्वास कर लेते हैं।
- वित्तीय लाभ: इन बाबाओं का उद्देश्य लोगों को गुमराह करके पैसे और सम्मान कमाना होता है।
- राजनीतिक संरक्षण: कुछ पाखंडी बाबाओं को राजनैतिक पार्टियों का संरक्षण मिलता है। इसलिए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं होती।
महंगाई, आर्थिक असमानता और बेरोजगारी
आज
भारत में महंगाई लगातार बढ़ रही है। रोजमर्रा की चीजें इतनी महंगी हो गई
हैं कि गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए घर चलाना मुश्किल हो गया है। एक
तरफ जहाँ कीमतें आसमान छू रही हैं, वहीं दूसरी तरफ नौकरी के अवसर कम होते
जा रहे हैं।
युवा सालों तक अच्छी शिक्षा पाने के लिए संघर्ष करते
हैं, लेकिन डिग्री मिलने के बाद भी उन्हें नौकरी नहीं मिल पाती। बेरोजगारी
एक बड़ी समस्या बन गई है। जो युवा सरकारी नौकरी की उम्मीद में सालों तक
तैयारी करते हैं, उन्हें भी निराशा ही हाथ लगती है। जब वे अपने हक के लिए
सड़कों पर उतरते हैं, तो उन्हें पुलिस की लाठी और बुरा व्यवहार झेलना पड़ता
है, जैसे कि वे कोई अपराधी हों।
इन सब का नतीजा यह है कि आर्थिक
असमानता लगातार बढ़ रही है। जिन लोगों के पास पहले से पैसा है, वे और अमीर
होते जा रहे हैं, जबकि गरीब और मध्यम वर्ग के लोग इस महंगाई और बेरोजगारी
के जाल में फँस कर और भी गरीब होते जा रहे हैं। यह एक ऐसा भयानक चक्र है
जिसने आम आदमी के जीवन को पूरी तरह से मुश्किल बना दिया है।
शिक्षा को आस्था से जोड़ना: एक राजनीतिक रणनीति
यह कहना बिल्कुल सही है कि राजनीति से जुड़े कुछ लोग बच्चों और युवाओं को विज्ञान और टेक्नोलॉजी को आस्था से जोड़कर गुमराह करते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका मकसद यह होता है कि:
- आलोचनात्मक सोच को दबाना: जब बच्चे आस्था पर सवाल नहीं उठाते, तो वे प्रशासन के खिलाफ भी सवाल उठाने से डरते हैं। राजनैतिक दल ऐसा करके एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहते हैं जो उनकी नीतियों पर सवाल न उठाए और चुपचाप उनका पालन करे।
- वोट बैंक की राजनीति: इस तरह की बातें करके वे समाज के उस बड़े हिस्से का समर्थन हासिल करते हैं जो आस्था और धार्मिक मान्यताओं में गहरा विश्वास रखता है। यह एक आसान तरीका है जिससे वे बिना किसी ठोस काम के भी वोट बटोर सकते हैं।
- मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटाना: जब लोग आस्था और धार्मिक बहस में उलझे रहते हैं, तो वे बेरोजगारी, महंगाई, और भ्रष्टाचार जैसे वास्तविक मुद्दों पर ध्यान नहीं दे पाते। इस तरह, सरकारें अपनी नाकामियों से लोगों का ध्यान हटा सकती हैं।
इतने सारे गंभीर मुद्दों को देखते हुए भी, क्या यह कहने का मन करता है कि 'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा' इस बारे में आपका क्या कहना है, अपने विचार हमारे साथ साझा करें।
Wahaa bro
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